Krantiveer Aazadi II
कलकल बहती रणगंगा में कूद पड़े थे बाँध कफ़न
चुनी डगर काँटो से भरी ,ना झुके थे सर ना रुके कदम
जोश जुनून जज़्बा दिल में चाहे रणभूमि में निकले दम
बलिदान जान मेरी बार बार कीमत में मिले आज़ाद वतन
आज़ादी ,जो रक्त लिखी
तलवार नोक पे मौत टिकी
सीने में धधक अंगारे थे
बंदूक़ बजी और कलम चली
ली जुल्म जौर से ,जुल्मी क़ौम से ,
घर में घुसे उस ग़ैर चौर से
त्याग शौर्य और रक्त मोल से
ली आज़ादी छाती ठोक के
आज़ादी ,जो रक्त लिखी
तलवार नोक पे मौत टिकी
इस जंग से टूटे राखी कंगन
रोई माँए क्या कुछ ना बीती
आज़ादी ये आज़ादी
डंके की चोट पे ली हमने ये आज़ादी
पग पग मर्गट खून खराबा चला
बात जो आन पे खून मराठा लड़ा
खून लड़ाका लड़ा हाथ ले तलवार
बादल पे सवार वो बिजली सी चली
आई युद्ध की घड़ी साथ खड़ी झिलकारी थी
लड़ी मर्दानी वो झाँसी वाली रानी थी
लड़ी हर सांस रानी स्वाभिमानी थी
तोपे का साथ रण उतरी भवानी थी
झाँसी चिंगारी आग बनी और क्रांति देश में धधक पड़ी
ये धरा ना करे ग़ुलामी अब हर आम ख़ास में ललक लगी
रानी बेटे को बांध पीठ पे रण में गति को तिलक हुई
वो लक्ष्मीबाई मणिकर्णिका इतिहास के पन्नो में अमर हुई
आज़ादी ,जो रक्त लिखी
तलवार नोक पे मौत टिकी
इस जंग से टूटे राखी कंगन
रोई माँए क्या कुछ ना बीती
आज़ादी ये आज़ादी
डंके की चोट पे ली हमने ये आज़ादी
दुःख की लहर चाली जलियाँवाला बाग सू
दीवार हुई लाल मासूमा के खून दाग सू
चीखा चिल्लाटा चारुमेर दिखे लाशा पड़ी
कायर हो डायर लोगा ने मारयो जान सू
बदला की आग जागी ऊधम सिंह सरदार में
चाल्यो परदेश ने गोली डायर के मारने
लिख्योडी मौत सामे दिखे जाने काँच में
माटी ने माँ को दर्जो दे दियो अनाथ ने
पर ऊधम से पहले मौत मिली डायर क़िस्मत का सामी था
पर माइकल अभी भी ज़िंदा था जनरल डायर का साथी था
मारा उसके घर लंदन में , किताब काट बंदूक़ रखी
मौक़ा मिलते ही बजी गोलिया खड़ा ऊधम सिंह बाग़ी था
आज़ादी ,जो रक्त लिखी
तलवार नोक पे मौत टिकी
इस जंग से टूटे राखी कंगन
रोई माँए क्या कुछ ना बीती
आज़ादी ये आज़ादी
डंके की चोट पे ली हमने ये आज़ादी
आज़ादी ये आज़ादी
डंके की चोट पे ली हमने ये आज़ादी
कील थी कलम जेल में काग़ज़ दीवारे थी
समंदर के बीच निगरानी को मीनारे थी
वो क़ैद खोफनाक अंडमान के किनारे थी
सावरकर थे शांत जहां मौत की पुकारे थी
लिखने पे रोक लगी काँपने लगे फ़िरंगी
युद्ध लड़े कैसे जब ये सोच तकनीक लिखी
शब्दों से बात रखी सलाख़ों पे ताला था
कोठरी थी काली पर शब्दों में ज्वाला था !
वीर सावरकर अमर सदा हिंदू से हिंद की बात कही
क्रांति ना रुकी कभी वीर की काले पानी की सजा सही
जज्बा उनका ज्यों खड़ा हिमालय डटे रहे वो डटे रहे
भूखे प्यासे किया दरिया पार तो वीर सावरकर कहे गए
आज़ादी ,जो रक्त लिखी
तलवार नोक पे मौत टिकी
इस जंग से टूटे राखी कंगन
रोई माँए क्या कुछ ना बीती
आज़ादी ये आज़ादी
डंके की चोट पे ली हमने ये आज़ादी